शुक्रवार, १७ डिसेंबर, २०२१

माओवादी आंदोलन समाप्ती की ओर

 माओवादी आंदोलन समाप्ती की ओर

 

 13 नवंबर, 2021 को महाराष्ट्र के गढचिरोली जिल्हे मे पुलीस दल और नक्सलीयों मे मुठभेड हुइ। इस मुठभेड मे प्रमुख नक्सली नेता मिलिंद तेलतुंबडे मारा गया। इस घटनाक्रम पर महाराष्ट्र का एक अग्रणी मराठी समाचार पत्र 'सकाल'के सप्तरंग विशेषांक मे (प्रकाशन दिनांक 28 नवंबर, 2021) मेरा लेख प्रसिद्ध हुआ। उस लेख का हिंदी अनुवाद...




यह कहना गलत नही होगा कि देश भर में लाल क्रांति के नारे के तहत हिंसक गतिविधियों को अंजाम देने वाले माओवादियों के लिए यह नवंबर (साल 2021) महिना माओवादी मुव्हमेंट को खत्म करने का आगाज करने वाला रहा है। भारत मे माओवादी मुव्हमेंट, जिसे नक्सल मुव्हमेंट भी कहा जाता है, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) इस संघटन नाम से काम करती है। 9 नवंबर को, इस संगठन की की सर्वोच्च केंद्रीय समिति का सदस्य, बी. जी. कृष्णमूर्ति उर्फ ​​विजय को केरल पुलिस ने हिरासत लिया था। दो दिन बाद 11 नवंबर को इसी केंद्रीय समिति के दो सदस्यों को झारखंड पुलिस ने पकड़ लिया। इन दो सदस्यों मे एक था संगठन के पोलित पॉलिट ब्यूरो का सदस्य प्रशांत बोस उर्फ ​​किशन। और दुसरी व्यक्ती महिला थी। वह थी शीला मरांडी उर्फ ​​शोभा, जो केंद्रीय समिति की

तेलतुंबडे
मिलिंद तेलतुंबडे

एकमात्र महिला सदस्य है और प्रशांत बोस उर्फ ​​किशन की पत्नी है। इन दो घटनाओं के समाचार की स्याही सुखी भी नही ती, तो 13 नवंबर को, महाराष्ट्र पुलिस ने महाराष्ट्र की गढ़चिरोली जंगल में केंद्रीय समिति के अन्य सदस्य और नक्षल मुव्हमेंट के महाराष्ट्र के प्रमुख दीपक उर्फ ​​मिलिंद तेलतुम्बडे सहित 26 प्रमुख माओवादियों को मार गिराया। माओवादी गतिविधियों पर रणनीतिक निर्णय लेने वाले चार प्रमुख सदस्यों की गिरफ्तारी या मृत्यु के कारण यह नवंबर (साल 2021) महिना माओवादी आंदोलन के लिए एक बड़ा झटका माना जा रहा है।


इन घटनाओं मे गढचिरोली की घटना जादा अहम है। पुलिस को गोपनीय सूचना मिली थी कि माओवादीं की कई सशस्त्र तुकडीयाँ और कुछ प्रमुख माओवादी नेता गढ़चिरोली के मर्दिनटोला जंगल में एकत्र हुए हैं। इस सूचना के आधार पर सी-60 पुलिस तुकडी ने, जो विशेष रूप से प्रशिक्षित टीम ने शनिवार, 13 नवंबर की सुबह तड़के जंगल में तलाशी अभियान शुरू किया। अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक (संचालन) सोमय मुंडे के नेतृत्व में टीम ने विशेष रणनीति के साथ जंगल में प्रवेश किया। सुबह करीब साढ़े पांच बजे जंगल में तितर-बितर नक्सलियों का एक दल और पुलिस दल आमने-सामने आ गया. फायरिंग शुरू हुई। लेकिन बिखरे नक्सलियों को एक साथ आने का मौका दिए बिना कमांडो की टीम ने सौ से ज्यादा संख्या मे होने वाले सभी नक्सलियों को घेरे मे लिया. इस मुठभेड़ में केवल तीन पुलिसकर्मी घायल हुए, लेकिन मिलिंद तेलतुंबड़े समेत 26 नक्सली मारे गए। मारे गए नक्सलियों मे मिलिंद तेलतुंबडे के साथ नक्सल मुव्हमेंट के कोरची दलम का कमांडर किशन उर्फ ​​जयमन, कसनसुर दलम का कमांडर सन्नू उर्फ ​​कोवाची, कमांडर महेश उर्फ ​​शिवाजी, मिलिंद तेलतुंबडे का सुरक्षा प्रभारी कमांडर लोकेश उर्फ ​​मंगू, तेलतुंबडे का अंगरक्षक भगत उर्फ ​​प्रदीप और उसकी सहायक योगिता इनका समावेश था। इसमें से अकेले तेलतुंबड़े पर 50 लाख रुपये का इनाम था। महेश को 16 लाख और लोकेश को 20 लाख रुपये मिले। माओवादी संगठन में जिम्मेदारी के मामले में केंद्रीय कमेटी के सदस्य मिलिंद तेलतुंबडे मृतकों में से सबसे बड़े नेता थे। उसके बाद शिवाजी और लोकेश, दोनों डीवीसीएम, किशन और सन्नू दोनो कमांडर, भगत एएमसीएम और चार नक्सली पीपीसीएम थे।


विदर्भ की नक्सल मुव्हमेंट की बात करें तो मिलिंद तेलतुम्बडे का इस क्षेत्र मे प्रभाव था। उस की मृत्यु विदर्भ में इस आंदोलन को खत्म करनेवाला हो सकता है। 80 और 90 के दशक में नक्सल आंदोलन विदर्भ के चार जिलों गढ़चिरौली, चंद्रपुर, भंडारा और गोंदिया में फैल गया था। लेकिन बाद में सुरक्षाबलों की कड़ी भूमिका के चलते उनका प्रभाव क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा था और हाल में यह छत्तीसगढ़ और तेलंगाना की सीमा पर गढ़चिरौली जिले के वनक्षेत्र तक ही सीमित रह गया था। सुरक्षा बलों के दबाव के कारण नक्सली सशस्त्र तुकडीयों में युवाओं की भर्ती भी बाधित हुई। यह भरती कम होती जा रही है। दुसरी तरफ पोलिस दल ने एक नई रणनीती अपनायी। इस रणनीती के कारण जंगलों में सक्रिय कुछ प्रमुख माओवादियों, जैसे कि पहाड़ सिंह, जिन्होंने हिंसा का नेतृत्व किया, ने आत्मसमर्पण कर दिया। इस कारण माओवादी लाल क्रांति का रंग धीरे-धीरे फीका पड़ रहा था। माओवादी संगठन को इस स्थिति से बाहर निकलने और नक्सल आंदोलन को फिर से मजबूत करने के लिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने कुछ संगठनात्मक परिवर्तन किए थे। इस महत्वपूर्ण परिवर्तनों में से एक संगठन के महाराष्ट्र राज्य प्रमुख के रूप में मिलिंद तेलतुम्बडे की नियुक्ति थी। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि मिलिंद महाराष्ट्र में नक्सल आंदोलन की रीढ़ थे। मिलिंद का काम वन क्षेत्र में हिंसक और सशस्त्र कार्रवाई के लिए नीतियां बनाना था। लेकिन साथ ही, मिलिंद तेलतुम्बडे की एक प्रमुख जिम्मेदारी थी। वह जिम्मेदारी थी कि नक्सलियों के लिए फायदेमंद रहनेवाले शहरी संगठनों के साथ समन्वय करें और इसी क्रम मे विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले प्रतिष्ठित व्यक्तियों के साथ बातचीत करना।

मिलिंद महाराष्ट्र के यवतमाल जिले मे वनी तालुका के एक छोटे से गांव राजूर का रहने वाले था। मिलिंद, जो केवल IIT हैं, ने कुछ समय तक वेस्टर्न कोल लिमिटेड में काम किया। इसी दौरान वह वामपंथी ट्रेड यूनियनों के संपर्क में आए। कुछ समय बाद उन्होंने नक्सल आंदोलन में शामिल होने का फैसला किया और घर छोड़कर जंगल में शरण ली। मूल रूप से विदर्भ के रहने वाले और कई वर्षों तक गढ़चिरौली जिले में रहने के कारण वह इस क्षेत्र के जंगलों को अच्छी तरह से जानता था। अपने अच्छे संपर्कों के कारण, उन्होंने नक्सल आंदोलन में अपनी स्थिति मजबूत की और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की सर्वोच्च केंद्रीय समिति के सदस्य बन गए। नक्सल आंदोलन में दीपक, मिलिंद, एमटी, एम, श्रीनिवास इन विभिन्न नामों से मशहूर और हिंसा के विभिन्न कृत्यों के लिए तीनों राज्यों में पुलिस द्वारा वांछित तेलतुम्बडे को हाल ही में महाराष्ट्र में संगठन को मजबूत करने, शहर से धन जुटाने और भर्ती करने का काम सौंपा गया था। तेलतुंबडे के पहले गढचिरोली के जंगलों के आदिवासी क्षेत्रों में व्यापक संपर्क वाले दो प्रमुख नक्सली नेता थे। उसमे की एक महिला नेता, नर्मदाक्का को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, जबकि दुसरा नेता जोगन्ना अब उम्र के कारण थक चुके हैं। ऐसे में मिलिंद तेलतुम्बडे जैसा नेता खोना नक्सली आंदोलन के लिए एक झटका है.

13 नवंबर को गढ़चिरौली के जंगल में हुई झड़प बहुत बड़ी थी. तीन साल पहले, अप्रैल 2018 में, महाराष्ट्र पुलिस के सी-60 दस्ते ने गढ़चिरोली के जंगल में दो अलग-अलग मुठभेड़ों में 42 माओवादियों को यमसदनी भेजा था। उस मुठभेडों मे कई वरिष्ठ नक्सली कमांडर भी मारे गए। पुलिस की यह अब तक की सबसे बड़ी कार्रवाई है। पुलिस के एक अभियान में तेलतुम्बडे जैसे प्रमुख नेता दस सालों के बाद मारा गया हैं। इससे पहले, नवंबर 2011 में, नक्सलियों के तत्कालीन सर्वोच्च नेता मल्लजुला कोटेश्वर राव, जिन्हें किशनजी के नाम से जाना जाता था, को बंगाल पुलिस ने पश्चिम बंगाल के मिदनापुर के जंगल में मारा था। इसलिए 13 नवंबर की मुठभेड मे तेलतुम्बडे का मरना ज्यादा अहम है। हालांकि इस मुठभेड़ के कारण किशन, शीला और विजय की गिरफ्तारी को कम नही आंका नहीं जा सकता है। मिलिंद तेलतुम्बडे महाराष्ट्र के लिए महत्वपूर्ण थे, लेकिन किशनदा, शीला और विजय सभी देश भर में नक्सल आंदोलन के लिए महत्वपूर्ण थे। किशनदा के नाम से मशहूर प्रशांत बोस 83 साल का हैं लेकिन मानसिक और बौद्धिक रूप से काफी मजबूत नेता माना जाते हैं। वह न केवल केंद्रीय समिति के सदस्य था, बल्कि वह छह सदस्यीय पोलित ब्यूरो के सदस्य भी था, जिसने संगठन की राजनीतिक नीति को निर्धारित किया था। उनकी पत्नी शीला उर्फ ​​शोभा केंद्रीय समिति की एकमात्र महिला सदस्य थीं। तेलतुंबड़े की मृत्यू से दो दिन पहले 11 नवंबर को झारखंड पुलिस और केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) की संयुक्त टीम ने झारखंड के सरायकेला जिले के एक टोल प्लाजा पर एक सफेद कार को रोका और इस कार से छह लोगों को गिरफ्तार किया. इन छह व्यक्तियों मे किशन और उसकी 64 साल की पत्नी शिला मरांडी उर्फ ​​शोभा थे। दोनों चोरी-छिपे पश्चिमी बीरभूम जिले के जंगलों में रह रहे थे। दोनो किसी काम से गिरिडीह जिले के पारसनाथ जंगल में गये थे और वापस आते समय दोनों को भी झारखंड पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। कार में सवार अन्य चार भी कुख्यात नक्सली थे। इस घटना से दो दिन पहले, 9 नवंबर को, केरल पुलिस के आतंकवाद विरोधी दस्ते ने केंद्रीय समिति के एक सदस्य बी. जी. कृष्णमूर्ति उर्फ ​​विजय को गिरफ्तार कर राष्ट्रीय जांच दल को सौंप दिया गया। स्थानीय वकील विजय कर्नाटक से केरल आ रहा था।

माओवादी आंदोलन के एक नेता की हत्या और अकेले नवंबर में सुरक्षा बलों द्वारा तीन नेताओं का हिरासत मे लेना माओवादी आंदोलन के लिए एक बड़ा झटका है। 2021 के जून में केंद्रीय समिति के सदस्य हरिभूषण उर्फ ​​यापा नारायण उर्फ ​​लक्मू दादा (तेलंगाना) और अक्टूबर में अक्कीराजू हरगोपाल उर्फ ​​रामकृष्ण उर्फ ​​आरके (आंध्र प्रदेश) इनका बीमारी के कारण मृत्यू हो गया। इस प्रकार केंद्रीय समिति के छह सदस्य संगठन से दूर गए हैं। वर्तमान में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के महासचिव, बासवराज, गुरिल्ला युद्ध में माहिर हैं। वह संगठन के संगठनात्मक प्रमुख हैं, लेकिन उन्हें वैचारिक नेतृत्व प्रदान करने के लिए नहीं जाना जाता है। ऐसे में संगठन के वैचारिक और रणनीतिक नेतृत्व जाना जानेवाले मिलिंद का जाना एवं किशनदा, शीला और विजय का पकडा जाना, नक्सल आंदोलन की कमर तोडने वाली घटनाएं है। नक्सल आंदोलन में अक्सर दलित, वंचित, आदिवासी समुदाय को न्याय दिलाने की भाषा बोली जाती है। मगर यह भाषा एक छल है। हालाँकि, नक्सल आंदोलन का असली उद्देश्य जंगलों में हिंसा का सहारा लेना और देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को नष्ट करने के लिए विकास का विरोध करना रहा है। इसीलिए नक्सलवाद से पीड़ित राज्य इस आंदोलन को खत्म करने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहे हैं और उसे बड़ी सफलता भी मिल रही है। ऐसे में नक्सल आंदोलन के एक मजबूत नेतृत्व मिलिंद तेलतुम्बडे की मौत और किशन, विजय, शोभा की गिरफ्तारी ने आंदोलन को कमजोर कर दिया है और उसकी कमर तोड़ दी हैं। सुरक्षा बलों ने नक्सल आंदोलन की कमजोरी का फायदा उठाना चाहिए और नक्सल आंदोलन को खत्म करना चाहिेए।

जांबाज सी-60 जवान

13 नवंबर को हुई मुठभेड़ में गढ़चिरोली पुलिस के सी-60 दस्ते ने शानदार प्रदर्शन किया। नक्सली घने और सुदूर जंगलों में रहते है। उन्हें इन जंगलों मे जो गांव है, वहाँ से मदद मिलती है। वहाँ संचार का कोई साधन नहीं है। ऐसे में पुलिस के लिए जंगल मे नक्सलियों का पता लगाना नामुमकिन होता है। इसके समाधान के लिए गढ़चिरोली पुलिस ने गढ़चिरोली जिले के बहादुर युवा सैनिकों की मदद से इस सी-60 दस्ते का गठन किया था। इस दस्ते के जवानों को सैन्य प्रशिक्षण दिया गया। इसी दस्ते के कमांडो ने अप्रैल 2018 में गढ़चिरौली के जंगल में 42 नक्सलियों को मार गिराया था और 13 नवंबर को मिलिंद तेलतुंबडे समेत 26 नक्सलियों को मार गिराया। पुलिस विभाग के विशेष प्रयासों से पिछले पांच वर्षों में 300 से अधिक नक्सलियों को गिरफ्तार किया गया या उन्हों ने आत्मसमर्पण किया है। सी-60 दस्ते ने इस संबंध में विशेष योगदान दिया है।

 

- डॉ. अनंत कोलमकर, नागपूर



रविवार, २६ मे, २०१९

चपराकच...




निराश प्रकाशराज


23 मे रोजी लागलेल्या लोकसभा निवडणुकीच्या निकालाने भल्याभल्या राजकीय पंडितांना चक्रावून टाकले आहे. स्वबळावर भाजपाला 300 जागा मिळणे व एनडीएला 350 जागा... परत दुसऱ्यांदा बहुमताचे सरकार... गठबंधनाचे सरकारच्या अस्थिरतेचा फायदा घेऊन आपापल्या स्वार्थाच्या पोळ्या भाजण्याचे स्वप्न पाहणाऱ्यांना तर हा जबर धक्काच होता. या अभूतपूर्व अशा विजयाचे विश्लेषण अऩेक जण वेगवेगळ्या प्रकारे करीत आहेत. पण खरं तर मोदींचा हा विजय नकारात्मक व द्वेषाचे राजकारण करणाऱ्यांच्या गालावर बसलेली सणसणीत चपराक आहे. दक्षिणी चित्रपटातील प्रसिद्ध कलावंत प्रकाश राज अलीकडे डाव्या पुरोगाम्यांच्या कंपूत विराजमान झाले आहे. तेही या निवडणुकीत उभे होते. त्यांच्या पराभवानंतर त्यांनी नेमकी हीच प्रतिक्रिया व्यक्त केली. निकालानंतर केलेल्या ट्विटमध्ये ते म्हणाले – मोदींचा विजय हा माझ्या गालावर बसलेली सणसणीत चपराक आहे.
विरोधकांनी गेले पाच वर्षांत मोदी सरकारची वाईट प्रतीमा तयार करण्यासाठी जी काही शब्दावली वापरली, ती मोठी आहे. असहिष्णू, प्रतिगामी, फंडामेंटालिस्ट, जातीयवादी, धर्मांध... असे अनेक शब्द विरोधकांनी वापरले. पण चार वर्षांत त्याची कोणताही परिणाम जनतेवर झाला नाही. नोटाबंदी, जीएसटी याचा तात्कालिक त्रास जनतेला झाला... पण विरोधक वगळता सर्वसामान्य जनतेला त्यातील फायदेही कळले होते. शेवटच्या वर्षात राफेलचा मुद्दा मोठा करून भ्रष्टाचाराचा आरोपही सरकारवर करण्याचा प्रयत्न झाला. पण जनतेने तेही आरोप झुगारून मोदी सरकारवर विश्वास दाखवला.
ही निवडणूक भाजपने व्यक्तीमाहात्म्य वाढवणारी केली, असा आरोप हास्यास्पद आरोपही विरोधकांनी करून पाहिला. विरोधक म्हणतात त्याप्रमाणे ही निवडणूक मोदीकेंद्रित झाली, हे नाकारता येत नाही. पण ती मोदीकेंद्रित करण्याला जबाबदार कोण? कोणी केली ती मोदीकेंद्रित? खरं तर ज्यादिवशी ‘चौकीदार चोर है’ हा नारा लावला गेला, त्याचदिवशी निवडणूक मोदीकेंद्रित व्हायला सुरुवात झाली होती. ज्या कुणाच्या डोक्यातून हा नारा निघाला असेल, त्याला मोदीच कणभरही समजले नव्हते, असे म्हणावे लागेल. हा नारा निर्माण करण्याइतपत डोके राहुलबाबांचे चालेल, असे वाटत नाही. पण कुणातरी दिलेल्या मूर्ख सल्ल्याचे पालन करून प्रत्येक सभेत तो नारा देणारे राहुल गांधी यांनीच ही निवडणूक मोदीकेंद्रित केली. त्याचा फायदा न घेण्यासारखा मूर्खपणा मोदी-शहा ही राजकारण धुरंधर जोडी कधीच करणार नव्हती.... त्यामुळे ही निवडणूक मोदी हवा की मोदी नको... अशीच विरोधकांनीच केली होती.

राफेल प्रकरणातही सर्वोच्च न्यायालयाच्या निर्णयानंतर चूप होण्याची संधी विरोधकांना होती. पण ती संधी त्यांनी गमावली. राफेलमध्ये भ्रष्टाचार झाला, हे मानायला जनता आजही तयार नाही. फ्रान्सच्या सरकारने व तत्कालीन संरक्षणमंत्री स्व. मनोहर पर्रिकर यांनी राहुलचा खोटारडेपणा उघड केल्यानंतर तर राहुलची प्रतीमा तशीच जनमानसातून संपली होती. मूर्ख सल्लागारांच्या घोळक्यात राहणाऱ्या राहुलबाबांनी त्यापासून धडा घेतला नाही. ते राफेल उगाळत बसले व चौकीदार चोर है, असे नारे लोकांकडून लावून घेत होते.

सर्जिकल स्ट्राईक व बालाकोट प्रकरणानंतर तर विरोधकांनी आपली उरलीसुरली विश्वासार्हता सामान्य जनतेतून गमावली होती. देशाच्या सुरक्षेच्या मुद्दावरही विरोधक सरकारविरोधी भूमिका घेतील, सेनेने घोषित केलेल्या कारवाईचे पुरावे मागितले जातील, आणि पाकिस्तानी नेते जी भूमिका घेत होते, त्याच भाषेत विरोधक बोलतील, याची अपेक्षाच देशातल्या सर्वसामान्य जनतेने केली नव्हती. पण विरोधकांनी तो मूर्खपणा केला. त्यात मग आम्हीही सर्जिकल स्ट्राईक केला होता, असे सांगत नेमके वर्ष सांगण्याची काय गरज होती समजले नाही. याबाबत सेनेनेच खुलासा करून अगोदर कोणतेही सर्जिकल स्ट्राईक्स झाले नाही, असे सांगितले. कोणती इज्जत राहिली विरोधकांची यामुळे.

उरलीसुरली कसर मेहबुबा मुफ्ती, फारुख अब्दुल्ला व ममता बॅनर्जी यांनी पूर्ण केली. मेहबुबा व फारुख यांची थेट तिरंगा काश्मिरात फडकणार नाही, यासारखी भाषा जनतेच्या काही पचनी पडली नाही. आणि ममताचा थयथयाट आकलनापलीकडला होता. एका राज्याची मुख्यमंत्री दुसऱ्या राज्याच्या मुख्यमंत्र्याला राज्यात प्रचाराला येऊ देत नाही, भाजपा नेत्यांच्या सभा होऊ देत नाही, पंतप्रधानांन चपराक मारण्याइतपत खालच्या पातळीवरची भाषा वापरते, आणि हे सारं करीत असताना तिचे हावभाव, आक्रमकता... हा सारा प्रकार मुख्यमंत्र्याला शोभणारा नव्हताच. ममताच्या या अशोभनीय भाषा-व्यवहाराने विरोधकांचा पराभव निश्चित करून टाकला.

मोदींचा विजय हा अनेक मुद्दांना जनतेने परस्पर दिलेले उत्तर आहे. स्पष्टच सांगायचे झाल्यास मोदींचा दणदणीत विजय हा मोदींच्या व भाजपाच्या विरोधात उभ्या केलेल्या अनेक संकल्पनांचा दारुण पराभव आहे. त्यातील काही संकल्पना पुढीलप्रमाणे आहेत.
  • काही लोक पंतप्रधानांवरही विनापुरावा आरोप करतात, त्यांना चोर म्हणतात... आणि तेच लोक अभिव्यक्तीचे स्वातंत्र्याचे हनन होत असल्याचे रडगाणे गातात, हे जनतेने ओळखले. अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याच्या हननाच्या त्या रडगाण्याचा हा पराभव आहे.
  • अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याच्या हननाचे रडगाणे गात प्रसिद्धीच्या झोतात राहणाऱ्या प्रकाशराज, अमोल पालेकर, जावेद अख्तर, नयनतारा सहगल यासारख्या कथित पुरोगामी रुदाल्यांचा हा पराभव आहे.
  • अतिरेकी गोभक्तांच्या हिंसाचाराच्या घटना देशात शेकडोंनी झाल्या नाहीत. त्या बोटावर मोजण्याइतपतच होत्या. पण तितक्याचा आधार घेऊन आता या देशात राहण्याची भिती वाटण्याचे ढोंग करणाऱ्यांच्या ढोंगाचा हा पराभव होता.
  • संसद हत्याकांडातील आरोपी अफजल गुरूच्या फाशीवर आक्षेप घेणारे फलक घेऊन मिरविणाऱ्या रोहित वेमुलाच्या आत्महत्येला जातीयतेचा रंग देणाऱ्या जातीयवादी राजकारणाचा हा पराभव आहे.
  • अफझल हम शर्मिंदा हे, तेरे कातील जिंदा है, च्या जेएनयूत घोषणा देणाऱ्या टुकडेटुकडे टोळीचा व त्याच्या समर्थनार्थ तेथे उभ्या झालेल्या निर्लज्ज लोकांचा हा पराभव आहे.
  • पंतप्रधांनावर टीका करताना शिव्यांचा वापर करणाऱ्या व त्यांना चोर म्हणत पंतप्रधान पदाचा अपमान करणाऱ्या मोदीद्वेष्ट्यांचा हा पराभव आहे.
  • कोर्टाने अमित शहा यांना निर्दोष सोडल्यानंतरही त्यांना तडीपार म्हणणाऱ्या, पण स्वतः जामीनावर बाहेर असलेल्या नेत्यांच्या दोगलेपणाचा हा पराभव आहे.
  • अर्बन नक्षल्यांच्या टोळक्यांना समर्थन देणाऱ्या व त्यांच्यासाठी न्यायालयाचे दरवाजे ठोठावणाऱ्या डाव्या पिलावळीचा हा पराभव आहे.
  • अतिरेकी याकूब मेमनला फाशीपासून वाचवण्यासाठी मध्यरात्री सर्वोच्च न्यायालयाला उठविणाऱ्या कथित मानवतावाद्यांचा हा पराभव आहे.
  • केवळ अल्पसंख्यकांचे लांगूनचालन करणाऱ्या आणि जेहादी हिंसाचाराकडे दुर्लक्ष करणाऱ्या ढोंगी सेक्युलरवादाचा हा पराभव आहे.
  • प्रत्यक्षात नसलेला हिंदू दहशतवाद ही संकल्पना जन्माला घालून देशातल्या बहुसंख्य हिंदू समाजाला एकजात दहशतवादी ठरविणाऱ्या दिग्विजयसिंग, चिदंबरम, सुशीलकुमार शिंदे या नेत्यांच्या मानसिकतेचा हा पराभव आहे.
  • मोदींना मी पंतप्रधान मानत नाही, असे म्हणणाऱ्या ममतादिदींच्या अहंकाराचा हा पराभव आहे.
  • आपले राज्य हातून जात असताना स्वतःला राष्ट्रीय राजकारणाचे केंद्र बनवण्याचा, व शक्य झाल्यास पंतप्रधान बनण्याच्या अवास्तव स्वप्नांचा हा पराभव आहे.