यवतमाल में आयोजित अ. भा. मराठी साहित्य सम्मेलन का उद्घाटन प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखिका सुश्री डॉ. नयनतारा सहगल इनके द्वारा होनेवाला था। मगर, इस सम्मेलन की आयोजक संस्था ने नयनतारा सहगल को दिया हुआ निमंत्रण वापस ले लिया। यह निर्णय पूर्णतः सम्मेलन की आयोजक समिती का था। मगर इसके परिणाम स्वरूप "पुरस्कार-वापसी" गिरोह एवं कथित प्रगतिशील चिंतकों के द्वारा जो प्रतिक्रियाएँ व्यक्त हो रही, उसमे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन एवं असहिष्णुता इस रूप मे निमंत्रण वापसी के निर्णय को बताया जा रहा है। यहाँ तक तो ठिक था। मगर इस निर्णय का ठिकरा केंद्र एवं राज्य की भाजपा सरकार पर फोडा जा रहा है। यह संदेह करने के लिए पर्याप्त है कि सरकार को एवं भाजपा के बदनाम करने की साजिश कथित प्रगतिशील चिंतकों की टोली पहले ही लिख चुकी थी... और इस साजीश की पटकथा आने वाले चुनावों के संकेत है...।
यह मामला देवानंद पवार नाम के यवतमाल जिले की एक छोटे नेता के साथ शुरू हुआ। पवार भाजपा सरकार के समर्थक नहीं हैं। राज्य की भाजपा सरकार ने उनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किए हैं। उनके खिलाफ जिले से निष्कासित करने का आदेश भी हो गया। उन्होंने जिस जिले में किसानों द्वारा अधिक आत्महत्याएं हैं, उस यवतमाल जिले में साहित्य संमेलन आयोजित करने देवानंद पवार इन्होने विरोध किया। यहाँ तक तो सब ठीक था। लेकिन उन्होंने सबसे पहले नयनतारा सहगल के नाम का विरोध किया था। नामी-गरामी मराठी साहित्यिक होते हुए अन्य भाषा के साहित्यिक के हाथों से मराठी सम्मेलन का उद्घाटन क्यो हो रहा? इस लायक मराठी साहित्यिक नही क्या? ऐसा सवाल पवार इन्होने उपस्थित किया। इसी सवाल को राज ठाकरे का संघटन, मनसे के एक नेता राजू उमरकर ने मराठी अस्मिता का बना दिया एवं सम्मेलन न होने देने की धमकी भी दे डाली। इस विवाद के मद्दे नजर आयोजकों को अस्वस्थ होना, परेशान होना स्वाभाविक था। नतीजन, आयोजक ने सहगल के निमंत्रण को वापस लेने का फैसला किया और उन्हें सूचित किया। इस पूरी निर्णय प्रक्रिया मे कही भी राज्य की, केंद्र की सरकार, एवं भाजपा नहीं थी।
सहगल के निमंत्रण को वापस लेने का निर्णय एवं तरीका दोनो निश्चितही गलत है, इसमे कोई संदेह नहीं है। नयनतारा सहगल जैसे ख्यातनाम लेखिका के लिए यह निर्णय अपमान भरा है। इस निर्णय की निंदा करनी होगी। लेकिन जिस तरीके से पुरोगामी मंडली से इस 'निमंत्रण-वापसी' का विरोध शुरू हुआ है, वह तरीका देखते हुए इस बात पर संदेह है कि यह पूरा घटनाक्रम एक व्यापक साजिश का हिस्सा है। भाजपा सरकार एवं पंतप्रधान मोदी इनपर राजकीय टीका करने हेतू इस साहित्यिक सम्मेलन के मंच का उपयोग करने की यह पुरोगामी मंडली की साजिश थी। और इस साजीश की पटकथा का एक मुख्य पात्र, खुद नयनतारा सहगल ही थीं। यह ध्यान मे रखना आवश्यक है कि मोदी सरकार पर असहिष्णुता बढाने का आरोप कर के पुरस्कार वापसी करने वाली पुरोगामी चिंतकों की टोली की नयनतारा जी एक प्रमुख सदस्या थी।
देखिए, मैं कह रही थी की, असहिष्णुता का माहौल है ... मेरा भाषण मुख्यमंत्री को पसंद नहीं आया होगा... यह जो प्रतिक्रियाएँ नयनतारा जी की तरफ से आई, वह उसी राजकीय साजीश की ओर संकेत दे रही है। इसी पुरोगामी टोली के एक गणमान्य सदस्य एवं ख्यातनाम लेखक गणेश देवी की भी प्रतिक्रिया समान है। इस के बाद में इस सम्मेलन के लिए लिखा गया, मगर सम्मेलन मे पढ़ने का अवसर भी नहीं मिला, ऐसा नयनतारा जी का भाषण बीबीसी और इसी तरह की समाचार एजेंसियों के वेबसाइट पर उपलब्ध कराया गया।
नयनतारा जी के इस भाषण को ध्यान से देखें... पढ़ें... यह भाषण साहित्यिक भाषणों की तुलना में राजनीतिक अधिक है। इसमें रोहित वेमुला है, कलबुर्गी, दाभोलकर, पानसरे, गौरी लंकेश है... अखलाज का तडका है... यह भी कम हुआ तो शहरी नक्षली, माओवादी विचारकों की गिरफ्तारी पर चिंता है... नसीरुद्दीन शहा का डर भी है... बिते 60-70 साल में जो सहिष्णुता देश के चप्पे चप्पे पर दिख रही थी, वह मोदी सरकार के चार साल में कैसे गायब हुई, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन इस सरकार की कार्यकाल मे कैसे हो रहा... यह सब है। कही जगह पर साहित्य को खींचतानकर जोड़ा गया है। और फिर इस तरह की एक मौखिक भाषण मे दिखाने के लिए साहित्य पर एखाद-दो परिच्छेद दे दिए गए।
मोदी-फडणवीस सरकार एवं भाजपा पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन एवं असहिष्णुता का आरोप करने हेतू सब बारूदगोला तैयार था... इंतजार था सिर्फ सम्मेलन की उद्घाटन का...। इस सम्मेलन की माध्यम से सरकार विरोधी माहौल बनाने की तैयारी हो चुकी थी। यही वह साजिश थी। सब जमा-जमाया खेल था।
लेकिन देवानंद पवार ने अनजाने मे एक छोटी सी गलती कर दी। उन्होंने किसानों की आत्महत्या के भावनात्मक मुद्दे से सम्मेलन का विरोध किया था। उन्हें उम्मीद से अधिक प्रसिद्धी मिली। इसी प्रसिद्धी के उत्साह मे इन्होने सम्मेलन का उद्घाटन अंग्रेजी लेखिका के हाथों से करने का विरोध किया। मनसे की उंबरकर जी ने उसे मराठी अस्मिता का मुद्दा बनाया। सम्मेलन न होने देने की धमकी दी गयी। इसी कारण आयोजकों ने नयनतारा जी के निमंत्रण को रद्द कर दिया। परिणाम स्वरूप सरकार पर राजकीय टीकाटिप्पणी करने की एवं सरकार की बदनामी करने की पुरोगामी टोली की साजीश की पुरी तैयारी ध्वस्त हो गयी। हालांकि, नयनतारा जी के निमंत्रण को वापस नहीं लिया जाना चाहिए था। उनकी बोलने की स्वतंत्रता की रक्षा की जानी चाहिए। उन्हें जो बोलना है, उन्हें बोलने देंना था। कम से कम, इन पुरोगामी चिंतकों के द्वारा साहित्यिक मंच का उपयोग किस तरह राजकीय टीकाटिप्पणी के लिए करते हे, यह जनता देख तो सकती थी।
देखें कि देश में कितनी असहिष्णुता बढ़ी है, यह इस सम्मेलन के माध्यम से बताने का एक अच्छा अवसर चला गया है ... इसी की निराशा से निमंत्रण वापस लेने मे सरकार को खींचतान कर जोडा जा रहा है। इसी आधार पर सरकार की आलोचना करना भी शुरू हो गया है। यह सिर्फ शुरुवात है... अब सभी छुपे हुए छद्मी पुरोगामी, धर्मनिरपेक्ष चिंतक बाहर निकलेंगे... अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, बोलने की स्वतंत्रता खत्म हो रही है... असहिष्णुता बढ रही है... यह रुदन अब शुरू हो जाएगा। नसिरुद्दीन शहा का डर इसी नाट्य का एक ट्रेलर था। आनेवाले दिनों मे नसीर, नयनतारा जी, गणेशदेवी इनके जैसे और लोग सामने आएंगे... उनका ज़ोर से रोना शुरू कर हो जाएंगा ... मगर यह सब अप्रैल तक ही चलेगा...। यह सारा ड्रामा लोकसभा चुनाव के मद्देनजर ही है, यह समझ लिजिए।
- अनंत कोलमकर